जैसे समुद्र में नदियाँ अनेक मार्गों से होकर जाती हैं किन्तु अन्त में समुद्र में ही मिल जाती हैं। इसी प्रकार अनेक प्रकार के मार्ग हैं- भगवान् में लीन होने के लिये, भगवान् के आनंद को प्राप्त करने के लिये, भगवान् के ज्ञान को प्राप्त करने के लिये । किन्तु मैं ऐसा नहीं मानता। भगवत्प्राप्ति का केवल एक ही मार्ग है, दूसरा है। ही नहीं, हो ही नहीं सकता अर्थात् दूसरा मार्ग न था, न है, न होगा। अब तो कोई झगड़ा नहीं रहा, क्योंकि जब कई मार्ग होते हैं, किसी चौराहे पर आप खड़े हों। एक व्यक्ति कहे इधर से जाओ, एक व्यक्ति कहे बायें तरफ से जाओ, एक कहे दाहिनी तरफ से जाओ, तो बेचारा कन्फ्यूज़्ड हो जाता है कि मैं किधर से जाऊँ। तो यात्री अक्सर यह किया करते हैं- कुछ दूर गये सीधे और फिर लौट आये, अरे! यह मार्ग ठीक नहीं लगता, फिर बायें तरफ गये कुछ दूर, वहाँ से भी लौट आये। फिर दाहिनी तरफ गये कुछ दूर, वहाँ से भी लौट आये और इस लौटा - लौटी में उसके शरीर की समाप्ति हो जाती है। हर जन्म में हम लोगों ने यही किया अन्यथा अगर एक सही मार्ग हमें ज्ञात होता और उसी पर चले चलते, तो कितना ही लम्बा रास्ता हो, पार तो हो ही गया होता। क्योंकि हमारी आयु अनादि काल से चल रही है, हम सनातन हैं, भगवान् हमसे सीनियर नहीं है। अनंत जन्मों के चलने पर भी मंजिल तय नहीं हुई, आश्चर्य ! और आश्चर्य यही है कि हमारा डिसीज़न, हमारा निश्चय परिपक्व नहीं है। हाँ, तो बस एक मार्ग है, आप लोगों को तीन मार्ग की भी आवश्यकता नहीं। केवल एक मार्ग है भगवान् को पाने का, कोई झगड़ा नहीं बीच में, उसे प्रेम मार्ग कहते हैं, भक्ति मार्ग कहते हैं, उपासना मार्ग कहते हैं, अनेक नाम हैं। आप यह सोचें कि मैंने तो यह सुना है कि एक कर्मयोग होता है, एक ज्ञानयोग होता है, एक खोपड़ा योग होता है, ये सब कुछ नहीं । आपने यह भी तो सुना होगा कि उस कर्म से जिसमें भक्ति का प्लस न हो माया निवृत्ति नहीं हो सकती, उस ज्ञान से जिसमें भक्ति प्रमुख न हो, माया निवृत्ति नहीं हो सकती, तो फिर कौन बचा- केवल भक्तिमार्ग। अनंत वेद, अनंत शास्त्र, पुराण, धर्मग्रन्थ, संत पंथ को जानकर क्या होगा ?
श्रुतिर्विभिन्ना स्मृतयो विभिन्ना, नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम् । (महाभारत )
आप लोग जितना सुनेंगे, जितना पढ़ेंगे, उतना ही कन्फ्यूज्ड होंगे। क्योंकि आचार्यों की बोलने की भाषा बड़ी विचित्र है। हम ऐसा भी बोल सकते हैं कि जितने भी यहाँ बैठे हैं, सब नास्तिक हो जायें, शब्दों में इतना बड़ा डेन्जर है, शास्त्रों वेदों में और वेदों के द्वारा बोलेंगे ऐसा नहीं कि अटकल पच्चू बोलेंगे। मैं बोल चुका हूँ एक बार विद्वानों की सभा में। एक दिन मैंने केवल यह बताया कि वेद और गीता के समान गलत किताब न कोई थी, न है, न बनेगी और विद्वानों को चैलेन्ज किया कि जिसको एतराज़ हो । कल आकर हमारी बात को असिद्ध कर दे। कोई नहीं आया, तो मैंने कहा कि आज मैं यह सिद्ध करता हूँ कि वेद और गीता के समान श्रेष्ठ किताब न कोई थी, न है, न बनेगी। तो ये शास्त्र-वेद के विषय शब्द जाल हैं। इन शब्दों में क्या गम्भीरता है, क्या सेन्स है, यह जानने की योग्यता मानव में नहीं है, केवल भगवान् में है या भगवद् प्रदत्त बुद्धियुक्त महापुरुष में है, थ्योरिटिकल मैन कितना ही बड़ा विद्वान हो, सरस्वती बृहस्पति की बुद्धि भी पा ले, फिर भी कुछ नहीं समझ सकता-
खिद्यति धीर्विदामिह (भाग. ३.४.१६)
अरे ! सरस्वती की बुद्धि भी खिन्न हो जाती है, जब भगवद् विषय में, तो जन-साधारण की कौन कहे। इसलिये तमाम सुनना, पढ़ना, सोचना, विचारना बंद कर देना है। एक ही मार्ग है, भक्ति मार्ग, बस कोई झगड़ा नहीं, कोई प्रपंच नहीं। अगर कोई बहुत शास्त्र का ज्ञाता होगा, तो तमाम लम्बा-चौड़ा लैक्चर देगा, अंत में यहीं आकर उसका स्टॉपेज़ होगा, अतएव केवल भक्ति ही उपादेय है। तो इतना घूम कर, उल्टा प्राणायाम करने के बजाय सीधे-सीधे नाक पकड़ लो।
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा रचित पुस्तक प्रेम मार्ग का एक अंश।
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