चन्द्र सम बाड़े प्रेम गोविन्द राधे।
पे यामे पूर्णिमा न कबहूँ बता दे।।
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज का यह अद्भुत दोहा कृपालु भक्ति धारा से है, उन्ही के द्वारा की गयी इसकी व्याख्या प्रस्तुत है:
प्रतिक्षण जो बढ़े, बढ़ता ही जाये उसका नाम प्रेम । देखो गंगा नदी जहाँ से निकलती है वहाँ गाय के मुँह के बराबर धार होती है । इसलिए उसका नाम ही रखा गया हे गोमुख, उससे गंगा जी निकलती है। और फिर बढ़ते बढ़ते-बढ़ते-बढ़ते-बढ़ते बंगाल की खाड़ी में इतनी लम्बी-चौड़ी हो जाती हैं। ऐसे प्रेम होता है । और संसार का प्रेम कैसे होता है? जैसे नहर होती है । तो जहाँ से नहर निकलती है, वह 50 फुट चौडी होती है। फिर उससे तमाम नहरें निकलती जाती हैं तो वह छोटी होती होती ये नाली बन जाती है।
अच्छा गधे की अक्ल से समझो। जय सवेरे-सवेरे आप लोग सूर्य के सामने खड़े होते हैं तो बड़ी लम्बी परछाई होती है। और धीरे-धीरे-धीरे-धीरे सिकुड़ते सिकुड़ते दोपहर को ख़तम हो जाती है। आपके शरीर में सिमट जाती है। दोपहर के बाद फिर बढ़ने लगती है तो शाम को बड़ी लम्बी हो जाती है। तो सवेरे से दोपहर तक जैसे परछाई कम होती जाती है, ऐसे ही संसार का प्रेम हे। किसी भी स्त्री का, पुरुष का बेटा-बेटी, ताजमहल हो, कोई सीन हो। बाहर से आते हैं बड़े-बड़े प्राइम मिनिस्टर - ताजमहल देखेंगे इण्डिया का। आते हैं देखते हैं और बड़ी प्रशंसा करते हैं। और आगरा में रहने वाला जो है, उससे कहो- चलो ताजमहल देख आवें। अरे हट! ताजमहल क्या देखना। देख चुके हैं। देख चुके है! ये लो! उससे देखो संसार में अभी हमारे नाती का व्याह हुआ है। होने जा रहा है। तो कल बहू आएगी। तो देखने वाले - चलो बहू देख आवें! और कुछ भेंट, जैसे कोई वह देवी-देवता है। उसको भेंट भी देंगे। लेकिन, बस एक बार। उसके बाद न कोई देखने जायेगा और बल्कि अगर बुलावे पड़ोसिन कि बहू बीमार है, घर में कोई आदमी नहीं है। ज़रा दवा ला दो । टाइम नहीं है! यो बहाना कर देगा पड़ोसी।
तो संसार का सब प्रेम घटता जाता है, घटता जाता है। और उसी से फिर दुःख मिलने लगता है । उसी बीवी से, उसी पति से। फिर गाली-गलौज सब होने लगती है। हाँ! लेकिन भगवान् सम्बन्धी प्रेम प्रतिक्षण बढ़ता है। चन्द्रमा बढ़ता है न, प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी, पंचमी, षष्टि, सप्तमी.. पूर्णिमा। बस, पन्द्रह दिन। फिर घटने लगा। अब चतुर्दशी आ गई अब उससे कितना परसेंट कम हो गया, अब और कम हो गया, अब ओर फिर पड़िवा आया, खतम हो गई। लेकिन भगवान् के प्रेम में पूर्णिमा नहीं होती। सदा बढ़ता रहता है अनन्तकाल तक। यह दिव्य प्रेम का चमत्कार है।
इसीलिए प्रेम स्वरूपा राधा और सौंदर्य स्वरूप श्रीकृष्ण में होड़ होती है। राधारानी का प्रेम बढ़ गया तो श्यामसुन्दर ने अपने सौंदर्य को बढ़ा दिया, तो राधारानी का प्रेम और बढ़ गया। तो ठाकुर जी ने अपना सोन्दर्य और बढ़ा दिया। कोई हारता नहीं । प्रतिक्षण बढ़ता जाता है। वह सच्चिदानन्द है न शरीर। वह शरीर और शरीरी में भेद नहीं है, इसलिए ये वैलक्षण्य होता है। ये भावार्थ है।
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