विश्व का प्रत्येक जीव स्वभावतः अनन्त आनन्द ही चाहता है क्योंकि वह आनन्दकन्द सच्चिदानन्द श्रीकृष्णचन्द्र का अंश है। लेकिन वो आनन्द कैसे प्राप्त हो? उस आनन्द प्राप्ति की साधना में अनन्त वादों के विवाद चल रहे हैं। किन्तु उन समस्त वादों को हम निर्विवाद रूप से दो भागों में विभक्त कर सकते हैं- एक भौतिकवाद एवं एक अध्यात्मवाद जो व्यक्ति स्वयं को जीव मानता है, वह अध्यात्मवादी है एवं जो व्यक्ति स्वयं को शरीर मानता है वह भौतिकवादी है। यद्यपि ये दोनों ही वाद वादी एक दूसरे को निरर्थक तथा मिथ्या कहते हैं लेकिन वस्तुतः दोनों ही भोले हैं। जिस प्रकार शरीर एवं आत्मा दोनों का परस्पर समन्वयात्मक नित्य सम्बन्ध है उसी प्रकार अध्यात्मवाद एवं भौतिकवाद भी समान रूप से नितान्त अनिवार्य हैं। कैसे?
देखिए ! हम अपने आप को शरीर भी कहते हैं और शरीरी यानी आत्मा भी कहते हैं। जब हम जीवित अवस्था में होते हैं तो शरीर और शरीरी को मिलाकर, 'हम' बोलते हैं 'हम' जा रहे हैं, हम खा रहे हैं, हम पी रहे हैं और जब शरीर छोड़ देता है जीव, तब लोग बोलते हैं वो आज संसार से चला गया किन्तु उसका शरीर पड़ा हुआ है। इसका मतलब है कि ये दो तत्व हैं- एक हम एक हमारा शरीर। इसलिए हम रूपी आत्मा का लक्ष्य जो है उसकी प्राप्ति भी परमावश्यक है और हमारा जो शरीर है इसका जो लक्ष्य है, विषय है, उसकी प्राप्ति भी परमावश्यक है। शरीर का विषय शरीर को देना है, आत्मा का विषय आत्मा को देना है। शरीर पंचमहाभूत का है इसलिए इसका विषय पंचमहाभूत है । शरीर के विषय से तात्पर्य पाँच इन्द्रियों का विषय। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध-ये पाँच विषय हैं। एक-एक विषय का अनन्त अनन्त संसार है और आत्मा परमात्मा का अंश है अतएव आत्मा का विषय परमात्मा है। आत्मा को विषय संसार दिया जाए तो उससे काम नहीं बनेगा, शरीर को विषय परमात्मा दिया जाए तो उससे काम नहीं बनेगा। अतएव दोनों का समन्वय अत्यन्त आवश्यक है।
देखिए! सबसे पहले एक पक्ष में आइए कि भौतिकवाद के बिना अध्यात्मवाद का काम नहीं चलेगा क्योंकि उपासना तो शरीर को ही करनी है। शरीर माने शरीर प्लस मन, प्लस बुद्धि शरीर प्राकृत है, मन भी प्राकृत है, माया से बना है, बुद्धि भी प्राकृत है, माया से बनी है, केवल आत्मा स्प्रिचुअल है वह ईश्वर का अंश है, बाकी सब चीजें मायिक हैं। तो शरीर कहने से मतलब शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि सामूहिक एक साथ उसका नाम शरीर। तो शरीर भी ठीक रखना होगा। भौतिकवाद के बिना अध्यात्मवाद का काम नहीं चलेगा। शरीर के लिए जो भी आवश्यक तत्व हैं विटामिन ए, बी, सी, डी, प्रोटीन, वसा, तांबा, लोहा सब ठीक-ठीक मात्रा में शरीर को देने होंगे। अगर किसी ने विटामिन प्रोटीन सब चीज शरीर सम्बन्धी नहीं ग्रहण की और शरीर रोगी हो गया तो कहीं सिर में, पेट में, आँख में दर्द है तो फिर आप भगवान् का ध्यान नहीं कर सकते। फिर आप 'हरे राम हरे कृष्ण' की जगह हरे पीठ, 'हरे दर्द' करते रहेंगे, उपासना नहीं हो सकती।
अगर कोई यह कहे कि हमारे यहाँ बड़े-बड़े ऋषि मुनि हो गए हैं, जो कि बिना खाना खाए रहे हैं- 'कछु दिन बीते वारि बतासा' पानी पीकर रहे हैं, पानी भी प्राकृत है छोड़ दीजिए, बतासा - हवा खाकर रहे हैं लोग। हवा भी प्राकृत है, छोड़ दीजिए। अजी कुछ लोग ऐसे भी हुए हैं जो बिना हवा खाए रहे हैं। कहाँ रहे हैं ? पृथ्वी के ऊपर। वह भी मायिक है उसे भी छोड़ो। अजी आकाश में भी रहे हैं कुछ लोग। तो आकाश भी तो मायिक है उसको भी छोड़ दीजिए। और सबसे बड़ी बात ये शरीर जो तुम लिए बैठे हो, ओ ज्ञानी जी ! महात्मा जी! ऋषि जी! मुनि जी ! इस शरीर को भी छोड़ो। इसी शरीर में ही समाधि लगाए हुए हो। तो सिद्ध लोगों को भी भौतिकवाद अपनाना पड़ता है। संन्यासी और परमहंस को भी भिक्षा माँग कर खानी पड़ती है। यानी शरीर को रखना है।
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा रचित पुस्तक विश्व शांति का एक अंश।
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