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नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः ॥ गीता ६.१६॥

वो कर्मयोगी हो, ज्ञानयोगी हो, भक्तियोगी हो तीनों के लिये ठीक-ठीक खाना, ठीक-ठीक व्यवहार, ठीक-ठीक सोना, ठीक-ठीक जागना। सबका नियम है। वैज्ञानिक भी और आध्यात्मिक भी। उसके अनुसार चलना होगा। अधिक सोये बीमारी हो जायेगी, कम सोये बीमारी हो जायेगी। अधिक खाया बीमारी हो जायेगी, कम खाया बीमारी हो जायेगी।

चाहे भौतिक उत्थान हो, चाहे आध्यात्मिक उत्थान हो, दोनों में शरीर स्वस्थ रहना परमावश्यक है और प्रथम इसकी आवश्यकता है। ‘शरीरमाद्यम्’ कहा है। पहले शरीर स्वस्थ करो तब आगे बढ़ो। नहीं तो तुम मन का निरोध करने चलोगे, वो चाहे महापुरुष में लगाओ, चाहे भगवान् में लगाओ और कहीं दर्द हो रहा है आपके शरीर में, तो मायाबद्ध दर्द का चिन्तन करेगा, महापुरुष और भगवान् का चिन्तन नहीं हो सकेगा।

प्रस्तुत पुस्तक में जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा समय समय पर दिये गये विभिन्न प्रवचनों के अंश संकलित किये गये हैं। जिसमें उन्होंने भगवद् गीता के इस सिद्धान्त को अत्यधिक सरल भाषा में समझाया है कि भगवान् की भक्ति करने के लिए शरीर को स्वस्थ रखना परमावश्यक है तदर्थ जो भी आवश्यक विटामिन प्रोटीन इत्यादि है वह शरीर को देना होगग। अन्यथा शरीर बीमार हो जायेगा और बीमार शरीर से भगवान् का भी ध्यान नहीं हो पायेगा। गीता के निम्नलिखित श्लोकों की व्याख्या विभिन्न प्रकार से की गई है -

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः। न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु। युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा॥
(गीता ६.१६, १७)

Bhagavad Gita Jnana AharViharVol 6-Hindi
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भगवद् गीता ज्ञान - आहार विहार विज्ञान - हिन्दी

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स्वस्थ जीवन का विज्ञान
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विशेषताएं
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  • गीता के अनुसार कैसा आहार लेना चाहिये।
  • युक्ताहार विहार का सिद्धांत क्या है?
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  • ऐसा ज्ञान जो आपका जीवन जीनें की राह प्रशस्त करें।
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प्रकारविक्रेतामूल्यमात्रा

विवरण

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः ॥ गीता ६.१६॥

वो कर्मयोगी हो, ज्ञानयोगी हो, भक्तियोगी हो तीनों के लिये ठीक-ठीक खाना, ठीक-ठीक व्यवहार, ठीक-ठीक सोना, ठीक-ठीक जागना। सबका नियम है। वैज्ञानिक भी और आध्यात्मिक भी। उसके अनुसार चलना होगा। अधिक सोये बीमारी हो जायेगी, कम सोये बीमारी हो जायेगी। अधिक खाया बीमारी हो जायेगी, कम खाया बीमारी हो जायेगी।

चाहे भौतिक उत्थान हो, चाहे आध्यात्मिक उत्थान हो, दोनों में शरीर स्वस्थ रहना परमावश्यक है और प्रथम इसकी आवश्यकता है। ‘शरीरमाद्यम्’ कहा है। पहले शरीर स्वस्थ करो तब आगे बढ़ो। नहीं तो तुम मन का निरोध करने चलोगे, वो चाहे महापुरुष में लगाओ, चाहे भगवान् में लगाओ और कहीं दर्द हो रहा है आपके शरीर में, तो मायाबद्ध दर्द का चिन्तन करेगा, महापुरुष और भगवान् का चिन्तन नहीं हो सकेगा।

प्रस्तुत पुस्तक में जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा समय समय पर दिये गये विभिन्न प्रवचनों के अंश संकलित किये गये हैं। जिसमें उन्होंने भगवद् गीता के इस सिद्धान्त को अत्यधिक सरल भाषा में समझाया है कि भगवान् की भक्ति करने के लिए शरीर को स्वस्थ रखना परमावश्यक है तदर्थ जो भी आवश्यक विटामिन प्रोटीन इत्यादि है वह शरीर को देना होगग। अन्यथा शरीर बीमार हो जायेगा और बीमार शरीर से भगवान् का भी ध्यान नहीं हो पायेगा। गीता के निम्नलिखित श्लोकों की व्याख्या विभिन्न प्रकार से की गई है -

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः। न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु। युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा॥
(गीता ६.१६, १७)

विशेष विवरण

भाषाहिन्दी
शैली / रचना-पद्धतिसिद्धांत
विषयवस्तुतत्वज्ञान, गीता ज्ञान
फॉर्मेटपेपरबैक
वर्गीकरणसंकलन
लेखकजगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
प्रकाशकराधा गोविंद समिति
पृष्ठों की संख्या74
वजन (ग्राम)71
आकार18 सेमी X 12 सेमी X 0.8 सेमी
आई.एस.बी.एन.9789390373291

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